Kaifi Azmi

kahin se lauT ke hum laDkhaDae hain kya kya

IPTA-Convention,-Agra's-85---1

IPTA-Convention, Agra - 1985

कहीं से लौट के हम लड़खडाए हैं क्या क्या

सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या ।

नसीब-ए-हस्ती से अफ़सोस हम उभर न सके,

फ़राज़-ए-दार से पैग़ाम आए हैं क्या क्या।

जब उस ने हार के खंजर ज़मीं पे फ़ेंक दिया,

तमाम ज़ख्म-ए-जिगर मुस्कुराए हैं क्या क्या।

छटा जहाँ से उस आवाज़ का घना बादल,

वहीं से धूप ने तलवे जलाये हैं क्या क्या।

उठा के सर मुझे इतना तो देख लेने दे,

के क़त्ल गाह में दीवाने आए हैं क्या क्या।

कहीं अंधेरे से मानूस हो न जाए अदब ,

चराग तेज़ हवा ने बुझ्हाए हैं क्या क्या।

kahin se lauT ke hum laDkhaDae hain kya kya
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