Kaifi Azmi

Daawat – दावत

At a Mushaira

At a Mushaira

दावत

कोई देता है दर्द-ए-दिल पे मुसलसल आवाज़
और फिर अपनी ही आवाज़ से घबराता है

अपने बदले हुए अंदाज़ का एहसास नहीं
मेरे बहके हुए अंदाज़ से घबराता है

साज़ उठाया है कि मौसम का तक़ाज़ा था वही
काँपता हाथ मगर साज़ से घबराता है

राज़ को है किसी हमराज़ की मुद्दत से तलाश
और दिल सुहबत-ए-हमराज़ से घबराता है

शौक़ ये है कि उड़े वो तो ज़मीं साथ उड़े
हौसला ये है कि परवाज़1 से घबराता है

तेरी तक़दीर में आसाइश-ए-अंजाम2 नहीं
ऐ कि तू शोरिश-ए-आग़ाज़3 से घबराता है

कभी आगे, कभी पीछे, कोई रफ़्तार है ये
हमको रफ़्तार का आहंग4 बदलना होगा

ज़ेहन के वास्ते साँचे तो न ढलेगी हयात
ज़ेहन को आप ही हर साँचे में ढलना होगा

ये भी जलना कोई जलना है कि शोला न धुआँ
अब जला देंगे ज़माने को जो जलना होगा

रास्ते घूम के सब जाते हैं मंजिल की तरफ़
हम किसी रूख़ से चलें, साथ ही चलना होगा

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1- उड़ान 2- परिणति का सुख 3- आरम्भ का कोलाहल 4- लय, सामंजस्य

Daawat – दावत
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