Sarmaya

सरमाया

सरे सर-ए-सुख़न (अपनी बात)
सरमाया

Sarmaya: Kaifi Aazmi – Samagra


Author : Kaifi Azmi
Publisher : Vani Prakashan

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उर्दू साहित्य में कैफ़ी आज़मी का व्यक्तित्व किसी परिचय का मोहताज़ नहीं | इसी अर्धशताब्दी के भयानक वातावरण में वह और उनकी शायरी कठिन परीक्षा से गुजरी है | कभी अवसरवादियों ने उन पर ऊँगलियाँ उठाई तो कभी धर्म के नाम पर कट्टरपंथियों ने उन पर हमले किये | कभी प्रगतिशील विचारधारा के विरोधियों ने उन्हें अपना निशाना बनाया तो कभी आधुनिकता के ठेकेदारों ने उन पर ख़ाक उड़ाई | कानून के रखवालों ने उन पर पाबंदी लगाई, और प्रगतिशील विचारधारा के आलोचकों तथा लेखकों ने भी उनके साथ न्याय नहीं किया | इसके बावजूद कैफ़ी आज़मी अपने ज़मीर और फ़न के प्रति ईमानदारी और ख़ुलूस का रवैया अपना कर अपनी रंगारंग महान सभ्यता, राजनीति का शिकार होती हुई अपनी मज़लूम परंतु जीवित भाषा और उसके साहित्य की क़ाबिले-कद्र रिवायत और अपने युग के इन्सान की आवाज़ बन गये|

“सरमाया” उनके जीवन भर की पूँजी है |

सरे सर-ए-सुख़न (अपनी बात)
मैं और मेरी शाइरी
मैं
कब पैदा हुआ…………………………….. याद नहीं l
कब मरूँगा………………………………… मालूम नहीं l

अपने बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ इतना कह सकता हूँ मह्कूम (ग़ुलाम) हिन्दुस्तान में पैदा हुआ l आज़ाद हिन्दुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिन्दुस्तान में मरूँगा l यह किसी मज्जूब का बड़ या दीवाने का सपना नहीं है l समाजवाद (सोशलिज़्म) के लिए सारे संसार में और स्वयं मेरे देश में एक समय से जो महान संघर्ष हो रहा है, उस से सदैव जो मेरा और मेरी शाइरी का सम्बन्ध रहा है, इस विश्वास ने उसी की कोख से जन्म लिया है l

मैं उत्तरप्रदेश के ज़िला आज़मगढ़ के एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ l घर पर कृषि भी होती थी, छोटी मोटी ज़मींदारी भी थी l मेरे पिता सय्यद फ़तह हुसैन रिज़वी मरहूम को क़ुदरत ने एक ऐसी पैनी दृष्टि दी थी जो पत्थर के सीने में ताण्डव का नृत्य देखा करती थी l उनसे 80-90 वर्ष उधर जब मेरे सबसे बड़े भाई जन्मे तो पिताजी ने माता से कहा कि भारत में ज़मींदारी का कोई भविष्य नहीं है l यदि हम इस पर विश्वास किये बैठे रहे तो बच्चों की शिक्षा हो सकेगी न दीक्षा l इसलिए मैं गाँव से निकल कर बाहर जाता हूँ, यदि कोई ढंग की नौकरी मिल गयी तो आप को भी वहीँ बुला लूँगा और जहां तक संभव होगा, बच्चों को लखनऊ रखूँगा ताकि वहां उनकी उचित शिक्षा हो सके और भाषा भी परिष्कृत हो जाये l

पिताजी के इस निर्णय से कुल परिवार में एक कोहराम मच गया कि कितना ग़लत क़दम है l यदि अपना राजपाट छोड़ कर उन्होंने नौकरी कर ली तो पूरे ज़मींदारों की नाक कट जाएगी l अब्बा नौकरी का फ़ैसला इस लिए कर सके कि उस समय सारे परिवार में एक मात्र वही शिक्षित थे l परिवार की चीख़ोपुकार पर कान धरे बिना अब्बा लखनऊ चले गए l सौभाग्य से उनको बहुत जल्दी अवध के एक सुप्रसिद्ध प्रान्त वलहरी में तहसीलदारी मिल गयी l उसके पश्चात् अब्बा ने पत्नी एवं बच्चों को भी वहीँ बुला लिया और लखनऊ में एक मकान किराये पर लेकर लड़कों को वहां रखा l कुछ समय के बाद बड़े भाई पढ़ने हेतु अलीगढ़ भेज दिए गए l उनके बाद के दो भाई लखनऊ में रहे l उनकी शिक्षा वहीँ हुई, प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक, पर अब्बा ने गाँव से सम्बन्ध तोड़ा नहीं l अपने छोटे भाईयों को रुपये भेजते रहे l कृषि जो पूर्व से होती रही, उसने उस ज़माने में बहुत उन्नति की l अब्बा ने गाँव में घर बनवाया जिसको आम घरों के मुक़ाबले में हवेली कह सकते हैं l जमींदार होने के बावजूद अब्बा को अपनी पुत्रियों से अधिक प्यार था l लेकिन बड़ी बाजी को टी० बी० हो गयी, उस समय यह बीमारी कैंसर से कम नहीं समझी जाती थी l अब्बा ने बाजी का अच्छे से अच्छा इलाज कराया, अम्मा उसको लेकर इस डॉक्टर से उस डॉक्टर के पास, इस अस्पताल से उस अस्पताल, इस शहर से उस शहर जाती रहीं लेकिन उलटी हो गयी सारी कोशिशें कुछ न दवा ने काम किया l तीन चार साल बीमार रह कर बाजी की मृत्यु हो गयी l उनके बाद तीन और बहनें इसी भयानक बीमारी की शिकार हुईं l उनका भी इसी तरह इलाज हुआ l

मैं उस समय घर में सब से छोटा था l अम्मा जहाँ अपनी किसी बेटी को लेकर इलाज के लिए जातीं मुझे उनके साथ जाना पड़ता l इस तरह मैंने कच्ची उम्र में अपने चारो तरफ बिमारियों और दु:खों की भीड़ देखी और मैं धीरे धीरे ग़म पसन्द होता जाता l दुर्भाग्य से इन बहनों की भी मृत्यु हो गयी l वह यह सोचने लगे और कहने लगे कि हमने सब लड़कों को अंग्रेज़ी पढ़ाईहै इस लिए घर पर यह कोप आया है l वह अम्मा से अक्सर कहते कि जब हम मरेंगे तो कोई बेटा फ़ातिह: भी न पढ़ेगा l अंग्रेज़ी स्कूलों में उनको फ़ातिह: पढ़ना सिखाया ही नहीं गया है l इस लिए माता पिता ने स्वयं यह निर्णय लिया कि मुझे दीनी शिक्षा दिलायी जाये l इस बात को नई नस्ल की एक प्रगतिशील अफ़सानानिगार आयशा सिद्दीक़ी ने मेरे बारे में अपने एक लेख में इस तरह लिखा है कि “कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गों ने एक दीनी शिक्षागृह में इस लिए दाखिल किया था कि वहां यह फ़ातिह: पढ़ना सीख जायेंगे l कैफ़ी साहब इस शिक्षागृह में मज़हब पर फातिह: पढ़ कर निकल आये l” इस शिक्षागृह की बात यह है कि माता पिता ने मुझे मौलवी बनाने के ख्याल से मेरे लिए अंग्रेज़ी शिक्षा को वर्जित घोषित कर दिया l चचा मर्हूम जो काश्तकारी देखते थे वह मुझे कुछ भी पढ़ाने के खिलाफ थे l वह अब्बा से हमेशा कहते कि आप ने जिन लड़कों को साहब बहादुर बना दिया है वह न तो कभी गाँव में रहेंगे न खेत-खलिहान के चक्कर में पड़ेंगे l मैं अब कितने दिन जीयूँगा और कितने दिन इतनी बड़ी खेती को संभालूँगा ! एक लड़के को तो इस क़ाबिल रहने दीजिये कि वह इन चीजों को संभाल सके l

लेकिन मेरा यह हाल था कि भाई साहबान जब छुट्टियाँ गुज़ार कर लखनऊ जाने लगते तो मैं घर के किसी कोने में रो रो कर अपना बुरा हाल कर लेता l इन हालात में उम्र का वह हिस्सा जिस में शिक्षा शुरू हो जानी चाहिए थी, बर्बाद हो गया l लेकिन अचानक क़िस्मत ने साथ दिया, फसल कटाई हो रही थी l इसका तरीक़ा यह है कि मुँह अँधेरे किसान अपने हंसिये लेकर आ जाते हैं और दोपहर तक बड़े से बड़े खेत साफ़ हो जाता है l इसका पारिश्रमिक उनको यह मिलता है कि वह जो चीज़ काटते हैं उसकी छोटी-छोटी पौलियां बना कर खेत में एक से बिछा देते हैं l बीस पौलियां जमींदार की होती हैं, इक्कीसवीं उस किसान की जो फसल काटता है l हमारा सबसे बड़ा खेत जिसमें गले गले जौ आया था, कट रहा था l इत्तेफ़ाक़ से चचा को तहसील जाना था, वह जाते-जाते मुझे खेत में बिठा गए और अच्छी तरह समझा दिया कि ध्यान रखना, यह लोग बड़े बेईमान होते हैं और हरामखोर भी l यह इक्कीसवीं पौली हमेशा बहुत बड़ी बनाते हैं l एक पौली में दो-दो तीन-तीन पसेरी अनाज लेकर वह चले जाते हैं l किसी को ऐसा न करने देना ख़बरदार l

मैंने उनको इत्मीनान दिलाया कि मैं एक बाल किसी को ज्यादा न ले जाने दूंगा l संतोष पाकर चचा तहसील चले गए, फसल कटती रही मैं देखता रहा l गाँव की एक खुबसूरत और जवान लड़की भी फसल काट रही थी, मैं अधिकतर उसी के पास खड़ा रहाl दोपहर तक उसके गोर-गोर गालों से धूप रंग बनकर टपकने लगी l उसको कुछ अपने ऊपर यक़ीन था कुछ मेरी कमजोरी भी समझ चुकी थी l इसलिए उसने अपने पौलियां बहुत बड़ी बना रखी थी और जब मैं उनको देखने लगता तब वह मुस्कुराने लगती l उसने पौलियां जैसी बनायीं थीं ऐसा ही मैंने उसको ले जाने दिया l गाँव की एक बूढी औरत यह सब कुछ बड़े गौर से देख रही थी l उसने थोड़ासा अनाज चुरा रखा था l इतने में चचा आ गए और उन्होंने उस बुढ़िया को पकड़ लिया, उसे डराया-धमकाया तो उसने उनके सामने नमक मिर्च लगा कर मेरी शिकायत जड़ दी कि तू इस मुट्ठीभर जो छीन लिए और तिहरे बनवाये ऊका, ऊ जौन पुतरिया की तरह बाल डारे आ रही है, तेरे बिटवा ने ऊका ऊ जौन पुतरिया की तरह सिंगार करके काटे आ रही बोझ का बोझ उठाये के ऊके सरापर रख दींन l चचा ने मेरा कान पकड़ा और घसीटते हुए घर में अम्मा के पास ले गए कि इनको भी वहीँ भेज दीजिये l यह गाँव में रहेंगे तो सब कुछ लुटा देंगे l मुझे माँगीमुराद मिल गयी, दो चार दिन बाद अम्मा ने मामू के साथ मुझे लखनऊ भेज दिया l

लखनऊ में शियों का सब से बड़ा शिक्षागृह “सुल्तानुलमदारिस” में मेरा नाम लिखा दिया गया और बोर्डिंग में दाखिल कर दिया गया l इस शिक्षागृह में पहुँच कर और बोर्डिंग में रह कर मुझ पर ‘उर्फी’के एक शेर की सच्चाई पूरी तरह ज़ाहिर हुई :

मुफ्तियाँ कीं जल्व: बर महराब-ओ-मिम्बर मी कुनंद
चूं ब ख़ल्वत मी रवंद आ कार दीगर मी कुनंद ll

मैं देखता था रोज़ जब इंटरवल हो तो मौलाना, जो हमें पढ़ते थे, हमारे दर्जे के एक लड़के को, जिसका शरीर ठीक-ठाक था, अपने साथ ले कर अपने कमरे में चले जाते और अन्दर दरवाज़ा बंद हो जाता l मैं नया-नया गाँव से आया था l गाँव के लोग किसी चीज़ को जानने के उत्सुक होते हैं l मेरे दिल में इच्छा हुई कि देखूं कमरे में होता क्या है l रोशनदान जो थोड़ा ऊँचाई पर था, मैंने उसके नीचे स्टूल रखा, ऊपर खड़े होकर जो रोशनदान से कमरे में झाँकने लगा l मैंने देखा कि हमारे मौलवी साहब पलंग पर लेटे हुए हैं l दो-तीन मौलवी साहबान पलंग के क़रीब कुर्सियों पर बैठे हैं l लड़का हमारे मौलवी साहब के पलंग पर बैठा एक छोटीसी किताब पढ़कर उनको सुना रहा है l कभी-कभी मौलवी साहब कहते लाहौल विला क़ुव्वत और लड़के के गाल में ज़ोर से चुटकी लेते l बारी-बारी दुसरे मौलवी साहबान भी यही हरक़त करते l उस वक़्त शीअ: मौलवी और मौलाना अब्दुश् शकूर में बड़ी बहस हो रही थी l मैं समझा इस सिलसिले में कोई किताब होगी हमारे मौलवी साहब जिसका मुंहतोड़ जवाब लिखेंगे शायद l

जब कमरा खुला और लड़का बाहर निकला तो मैंने उसको पकड़ लिया और उससे तरह-तरह से पूछना शुरू किया कि तुम क्या पढ़कर सुनाते हो l वह कुछ घबरा गया l मुझे वहीँ ठहरने का इशारा करके भाग कर कमरे में गया और किताब लाकर मुझे दिखायी l ये संक्षिप्त कहानियों का संग्रह ‘अंगारे’ था जिस पर यु० पी० सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी l प्रगतिशील साहित्य से यह मेरा पहला परिचय था l

सुल्तानुल मदारिस जिस दिन क़ायम हुआ था उसी दिन उसके सारे क़ाइदे क़ानून बन गए थे l इस हालात के मुताबिक़ फिर किसी रद्द-बदल को पाप समझा गया था l मैंने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर छात्रों की एक कमेटी बनाई और और छात्रों की कुछ मांगें बनायीं गयीं l उनको लेकर सुल्तानुलमदारिस के व्यवस्था कमेटी को पेश किया l इसका जवाब हमको यह मिला कि यह अंजुमन हमारी मुख़ालिफ़त में बनायी गयी है l हम इसको नहीं मानते इसलिए अंजुमन को फ़ौरन तोड़ दो वर्ना ……… अंजुमन बन चुकी थी l इसको तोड़ने का सवाल ही नहीं, हमने कुर्सियों पर बैठे लोगों को नोटिस दिया अगर फ़ौरन हमारी अंजुमन को तसलीम न किया गया तो हम स्ट्राइक करेंगे और हुआ यही कि हम कुछ दिनों बाद स्ट्राइक करनी पड़ी l स्ट्राइक में सारे छात्रों ने शिरक़त की l कुछ दिनों के बाद दफ्तर में काम करने वाले और कुछ उस्ताद भी हमारे साथ आये l

इस स्ट्राइक से व्यवस्था समिति के लोग बौखलाए l उन्होंने हमें नोटिस दिया कि सुल्तानुलमदारिस बंद किया जाता है l तुमलोग कमरा छोड़ दो और अपने-अपने गाँव चले जाओ l जब सुल्तानुलमदारिस खुलेगा तुमलोग बुला लिए जाओगे l हम लोगों ने इस नोटिस का कोई नोटिस नहीं लिया l कमरों में भी डटे रहे और अपनी मांगों पर भी l एक रात हुसैनाबाद के कारिन्दे मोटे-मोटे डंडे लेकर आये l उन्होंने हमारा सामान कमरों से निकाल-निकाल कर बाहर फैंक दिया और हमारी अच्छी ख़ासी पिटाई भी की l हम भी अहिंसावादी नहीं थे, हमने भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया और बोर्डिंग पर क़ब्ज़ा किये बैठे रहे l

उस वक़्त तक मेरी शाइरी शुरू हो चुकी थी l शाइरी की शुरुआत एक परम्परागत ग़ज़ल के साथ हुई थी l लेकिन इस स्ट्राइक के दौरान ग़ज़लगोई छूट गई और मैं विरोध की शायरी करने लगा l क़रीब क़रीब रोज़ एक नज़्म कर लेता, लड़कों को सुनाता और उनमे जोश पैदा करता l पिटाई के बाद दुसरे दिन सुल्तानुलमदारिस के उत्तर फाटक पर मीटिंग हो रही थी और लड़के कुछ ज़मीन पर बैठे कुछ खड़े थे, मैं उनके दरमियान एक नज़्म सुना रहा था कि मैंने देखा एक बहुत बूढ़े आदमी तांगे पर बैठे हमारी तरफ आ रहे है l मैं घबराया कि यह हज़रत आकर अभी हमको समझाना शुरू करेंगे कि तुमलोग यह क्या कर रहे हो, इस से हमारा इतना बड़ा शिक्षागृह बदनाम हो रहा है वग़ैरह वग़ैरह l घबराहट में वह नज़्म और जोश में पढ़ने लगा l क़रीब आकर वह बुज़ुर्ग तांगे से उतर पड़े और मीटिंग में शामिल हो गए l नज़्म ख़त्म हुई तो उन्होंने मुझ से नज़्म मांगी, मैंने दे दी l एक सरसरी निगाह डालउन्होंने नज़्म जेब में रख ली और मुझ से कहा तुम जिनको चाहो अपने साथ ले लो और मेरे साथ मेरे घर चलो l मैंने गंवारों की तरह पूछ लिया आप कौन हैं बुज़ुर्ग l उन्होंने फ़रमाया अली अब्बास हुसैनी कहते हैं l अली अब्बास हुसैनी उर्दूवालों में प्रेमचंद के बाद दूसरा नाम l मैं सर झुकाए उनके पीछे हो लिया l

वह गोलागंज में रहते थे l घर पहुँच कर हुसैनी साहब ने नौकर को चाय बनाने का हुक्म दिया और अपने साहबज़ादे से कहा जाओ देखो एहतिशाम साहब यूनिवर्सिटी से आये हों तो बुला लाओ l एहतिशाम साहब क़रीब ही बारूदखाने में रहते थे l एहतिशाम साहब आये तो उनके साथ आज़म हुसैन साहब भी आ गए जो रोजनामा’सरफ़राज़’ के एडिटर थे l हुसैनी साहब ने ज़ोरदार लफ़्ज़ों में मेरी वक़ालत की और मुझ से इसरार किया किया कि मैं अपनी वही नज़्म सुनाऊं l मैंने नज़्म सुनाई, आज़म साहब ने ले ली कि वह इसको ‘सरफ़राज़’ में छापेंगे और हमारे समर्थन में सम्पादकीय भी लिखेंगे l एहतिशाम साहब ने मुझे अली सरदार जाफरी साहब से मिलवाया l यह स्टूडेंट्स फेडेरशन के जनरल सेक्रेटरी थे या सदर l आज़म साहब ने हमारे समर्थन में ज़बरदस्त सम्पादकीय लिखाl जाफरी साहब हमारी मीटिंगों में आने लगे l हमारे एजीटेशन में जान आ गयी l हुसैनाबाद वक्फ़ के मुतवल्लियों ने हमारी मांगें मान लीं और लगभग डेढ़ साल बाद हमारी स्ट्राइक ख़त्म हुई l लेकिन मेरे चन्द और साथी सुल्तानुलमदारिस से निकाल दिए गए l

मौलवी बनने का ख्याल मैं छोड़ चुका था लेकिन पढाई जारी रखी और प्राइवेट इम्तिहानात देकर उर्दू, फार्सी और अरबी की कुछ डिग्रीयां हासिल की जिसका विवरण यह है :

1. दबीर माहिर (फार्सी)
2. दबीर कामिल (फ़ार्सी) (लखनऊ यूनिवर्सिटी)
3. आलिम (अरबी)
4. आला क़ाबिल (उर्दू)
5. मुंशी (फ़ार्सी) (इलाहबाद यूनिवर्सिटी)
6. मुंशी कामिल (फ़ार्सी)

सोचा था यह परीक्षाएं पास करके किसी कॉलेज में सीधे एफ. ए. में दाखिला ले लूँगा और अंग्रेज़ी पढूंगा l लेकिन जब तक सियासत और शाइरी का जूनून बहुत बढ़ चुका था l आगे पढाई के लिए जिस कोशिश की ज़रूरत थी मेरा फक्कड़पन उसको झेल नहीं सका और पढाई अधूरी रह गयी l

शायरी तो एक तरह से मुझे ख़ानदानी मिली l मेरे अब्बा बाक़ाइद: शायर तो नहीं थे लेकिन शाइरी को अच्छी तरह समझते थे l घर में उर्दू, फार्सी के दीवान(संग्रह) बड़ी संख्या में थे l मैंने यह किताबें उस उम्र में पढ़ीं जब उनका बहुत हिस्सा समझ में आता था l मेरे बड़े तीनों भाई बाक़ाइद: शाइर थे या’नी बयाज़(डायरी) रखते थे और उपाधि भी l सबसे बड़े भाई सैयद ज़फर हुसैन मर्हूम की उपाधि ‘मजरूह’ थी l उनसे छोटे भाई सैयद हुसैन की उपाधि ‘बेताब’ थी l उनसे छोटे भाई सैयद शब्बीर हुसैन की उपाधि ‘वफ़ा’ थी l

भाई साहबान जब छुट्टियों में अलीगढ़ और लखनऊ से घर वापस आते थे तो अक्सर घर पर शे’री महफ़िलें होती थीं जिनमे भाई साहबान के अलावा पूरे क़स्बे के शोअरा शरीक़ होते थे l भाई साहबान अब जब अब्बा को अपना क़लाम सुनाते और अब्बा उनकी तारीफ़ करते तो मुझे ईर्ष्या होती और मैं बड़ी हसरत से अपने से सवाल करता कि क्या मैं कभी शे’र कह सकूँगा l लेकिन जब मैं भाइयों के शे’र सुनने के लिए खड़ा हो जाता या कहीं चुपचाप कहीं बैठ जाता तो फ़ौरन किसी बुज़ुर्ग की डांट पड़ती थी कि तुम यहाँ क्यों बैठे हो l तुम्हारी समझ में क्या आएगा l घर में जाओ और पान बनवा कर लाओ l मैं पाँव पटकता तक़रीबन रोता हुआ घर में बाजी के पास जाता कि देखिये मेरे साथ यह हुआ l मैं एक दिन इन सब से बड़ा शाइर बन कर दिखा दूंगा l बाजी मुस्कुरा कर कहतीं क्यों नहीं तुम ज़रूर कभी बड़े शाइर बनोगे, अभी तो यह पान ले जाओ और बाहर दे आओ l

इसी उम्र में एक घटना यह है कि अब्बा बहराइच में क़ज़ल्बाश स्टेट के मुख़्तार आम या पता नहीं क्या, वहां एक मुशाअर: हुआ l उस वक़्त ज़्यादातर मुशाअरे तरही (एक लाइन देना) हुआ करते थे l इसी तरह का एक मुशाअर: था, भाई साहबान लखनऊ से आये थे l बहराइच, गोंडा नानपारा और क़रीब-दूर के बहुत से शाइर बुलाये गए थे l मुशाअरे के अध्यक्ष ‘मानी जायसी’ साहब थे l उनके शे’र सुनने का एक खास तरीक़ा था कि एक वह शे’र सुनने के लिए अपनी जगह पर उकडूँ बैठ जाते और अपना सर दोनों घुटनों में दबा लेते और झूम-झूम कर शे’र सुनते और दाद (प्रशंसा) देते l उस वक़्त शाइर सीनियारिटी से बिठाये जाते l एक छोटीसी चौकी पर क़ालीन बिछा होता और गाव तक़िया लगा होता l अध्यक्ष इसी चौकी पर गाव-तक़िया के सहारे बैठता l जिस शाइर की बारी आती, वह इसी चौकी पर आकर एक तरफ बहुत आदर से घुटनों के बल बैठता l मुझे मौक़ा मिला तो मैं भी इसी तरह आदर से चौकी पर घुटनों के बल बैठकर अपनी ग़ज़ल जो ‘तरह’ में थी सुनाने लगा l ‘तरह’ थी मेहरबां होता, राज़दां होता वगैरह l मैंने एक शे’र पढ़ा –

वह सबकी सुन रहे हैं सबको दाद-ए-शौक़ देते है
कहीं ऐसे में मेरा क़िस्स:-ए-ग़म भी बयाँ होता l

‘मानी’ साहब को न जाने शे’र इतना क्यों पसन्द आया कि उन्होंने खुश होकर पीठ ठोंकने के लिए पीठ पर एक हाथ मारा मैं चौकी से ज़मीन पर आ रहा l ‘मानी’ साहब का मुँह घुटनों में छिपा हुआ इसलिए उन्होंने देखा नहीं क्या हुआ, झूम-झूम कर दाद देते और शे’र दुबारा पढ़वाते रहे और मैं ज़मीन पर पड़ा-पड़ा शे’र दोहराता रहा l यह पहला मुशाअर: था जिसमे शाइर की हैसियत से मैं शरीक़ हुआ l इस मुशाअरे में मुझे जितनी दाद मिली उसकी याद से अब तक कोफ़्त (परेशान) रहता हूँ l बुजुर्गों ने मेरा इस तरह दिल बढ़ाया कि वाह मियाँ वाह, माशा अल्लाह आप की याददाश्त (मेमोरी) बहुत अच्छी है l किसी ने कहा जिंदा रहो मियां, किस ए’तिमाद से ग़ज़ल सुनाई l हर आदमी यह समझ रहा और किसी न किसी तरह यह दिखा रहा था कि मुझे मेरे किसी भाई ने ग़ज़ल लिख कर दे दी जो मैंने अपने नाम से पढ़ी है l

ख़ैर, इन बुजुर्गों के इन अंदेशों (शंकाओं) की मैंने ज़ियाद: परवाह नहीं की l लेकिन जब अब्बा ने भी कोई इसी तरह की बात की तो मेरा दिल टूट गया और मैं रोने लगा l मेरे बड़े भाई शब्बीर हुसैन ‘वफ़ा’, अब्बा बेटों में जिनको सबसे ज़ियाद: चाहते थे, ने अब्बा से कहा इन्होने जो ग़ज़ल पढ़ी है वह इन्ही की है l शक़ दूर करने के लिए क्यों न इम्तिहान ले लिया जाये l उस वक़्त अब्बा ने मुंशी हज़रत शौक़ बहराईचीह थे जो मज़ाहिया (व्यंग) शाइर थे l उन्होंने इस प्रस्ताव का समर्थन किया l मुझसे पूछा गया इम्तिहान देने के लिए तैयार हो l मैं ख़ुशी से इसके लिए तैयार हो गया l शौक़ साहब ने मिसरा दिया ‘ इतना हंसो कि आँख से आंसू निकल पड़े’ l भाई साहब ने कहा ये ज़मीन इनके लिए बंजर साबित होगी, कोई अच्छा प्रस्ताव दीजिये l लेकिन मेरा उस वक़्त की ईगो आज जिसे अक्सर तलाश करता हूँ, मैंने कहा अगर मैं ग़ज़ल कहूँगा तो इसी ज़मीन (कैनवास) में वरना इम्तिहान नहीं दूंगा l तय पाया कि इस ‘तरह’ में तबा’ आज़माई (कोशिश) करूँ l

मैं उसी जगह लोगों से ज़रा हट कर दीवार की तरफ मुँह करके बैठ गया और थोड़ी देर में तीन चार शे’र हो गए l आज इन शे’रों को देखता हूँ तो समझ में नहीं आता कि इन में मेरा क्या है l पूरी ग़ज़ल में वही बातें जो असातिज़: (पुराने बड़े शाइर) कह चुके थे l उस ज़माने का ज़ियाद: क़लाम नष्ट हो गया लेकिन वह पहली ग़ज़ल इसलिए जिंदा रह गयी कि न जाने कहाँ से वह बेगम अख्तर तक पहुँच गयी l उसमे उन्होंने अपनी आवाज़ के पंख लगा दिए और वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गयी l लीजिये वह ग़ज़ल आप भी सुन लीजिये l यह मेरी ज़िन्दगी की पहली ग़ज़ल है जो मैंने ग्यारह वर्ष की उम्र में कही थी l

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल1 पड़े
हँसने से हो सुकून न रोने से कल2 पड़े
जिस तरह से हंस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क़3
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
इक तुम कि तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-व-फ़राज़4
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
साक़ी सभी को है ग़म-ए-तिश्न: लबी मगर
मय है इसीकी नाम पे जिसकी उबल पड़े
मुद्दत के बाद उसने की तो लुत्फ़5 की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े l

(1- विघ्न 2- चैन 3-आंसू 4- उतार-चढ़ाव 5- मुहब्बत )

अब इस ग़ज़ल को आप पसन्द करें या न करें, खुद मैं अब ऐसी ग़ज़ल नहीं कह सकता l लेकिन इसकी खूबी है कि इसने लोगों का शक़ दूर कर दिया और सब ने यह मान लिया कि मैंने जो कुछ अपने नाम से मुशाअरे में सुनाया था वह मेरा ही कहा हुआ था, मांगे का उजाला नहीं था l बहराइच में यह ग़ज़ल कहने और मुशाअरे में सुनाने के बाद जब लखनऊ आया तो सब ने यह समझाया कि अगर संजीदगी के साथ शाइरी करना चाहते हो तो किसी उस्ताद का दामन पकड़ लो l कोई बे उस्ताद शाइर नहीं हो सकता l हो सकता है गोण्डा, बहराइच में हो जाये लेकिन यह लखनऊ है l उस ज़माने में वहां दो उस्तादों का सिक्का चल रहा था l हज़रत आरज़ू लखनवी और मौलाना सफ़ी l मैं आरज़ू साहब के मुक़ाबले में सफ़ी साहब को ज़ियाद: पसन्द करता था l हिम्मत करके उनके घर पहुँच गया l

वह मौलवीगंज में रहते थे l मैंने सूचना भिजवाई l सफ़ी साहब का बड़प्पन देखिये कि उन्होंने बुला लिया l वह एक खुर्री चारपाई पर लुंगी बांधे और बनियान पहने बैठे थे l मैं पहुंचा तो सर उठा कर मेरी तरफ देखा और आने की वजह पूछी l मैंने अर्ज़ किया मैं आप से इस्लाह(मार्गदर्शन) लेना चाहता हूँ l उन्होंने एक बार फिर मुझे गौर से देखा और पूछा कुछ कहा है l मैंने यही ग़ज़ल सुनाई l मौलाना सफ़ी ने एक शे’र सिर हिला दिया और एक शे’र दुबारा पढवाया और दाद दी l ज़ाहिर है यह मेरे लिए बहुत था फिर उन्होंने पूछा तुम्हारी उम्र क्या है l मैंने पंजो के बल खड़े होकर अपना क़द ऊँचा करके कहा ग्यारह बरस l यह सुनकर वह मुस्कुराये; उन्होंने कहा मेरी शाइरी की उम्र 65 वर्ष की है l अगर तुम्हारे क़लाम में जुबां की कमी हो उसे मैं ज़रूर ठीक कर सकता हूँ लेकिन ऐसा करने से तुम्हारे फ़िक्र(सोच) की गर्मी चली जाएगी l ग्यारह बरस के सीने में जो गर्मी होती है वह 65 वर्ष के सीने में नहीं हो सकती l तुम एक ख़ास अक़ीदत से मेरे पास इस्लाह के लिए आये हो लेकिन इस्लाह के बाद जब जाओगे तो कुढ़ते हुए जाओगे कि मेरी ग़ज़ल ख़राब कर दी l मेरी रे यह है अगर वाह-वाह से गुमराह न हो तो लिखते रहो और पढ़ते रहो l शे’र की कमियां सूखे पत्तों की तरह गिरती चली जाएँगी और खूबियाँ नयी कोपलों की तरह फूटती रहेंगी l

इस राय की रोशनी में मैंने अपना अदबी सफ़र(साहित्यिक यात्रा) शुरू किया जो अभी तक जारीहै l मेरी नज्मों और ग़ज़ल के चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं :

1. झंकार
2. आख़िर-ए-शब
3. आवारा सिज्दे
4. इब्लीस की मज्लिस-ए-शूरा (दूसरा इज्लास)

“आवारा सिज्दे” की तारीफ़ कई ख़ेमों में कई तरह से हुई l दिल्ली में कोई नूरहेवली साहब हैं, उन्होंने और शाही इमाम ने “आवारा सिज्दे” के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ दिया l क़िताब ज़ब्त करने और मुझे जेल में डालने की मांग की गयी l ‘रहबर-दखिन’ और ‘सियासत जदीद’ कानपूर ने भी अपनी बातों का बेशर्मी से प्रदर्शन किया l उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने उसको उस साल की सबसे बेहतरीन क़िताब माना और अपना पहला एवार्ड दिया l इसी क़िताब पर मुझे “सोविअत लैण्ड नेहरु” एवार्ड भी मिला l “आवारा सिज्दे” पर मुझे साहित्य अकादमी ने भी एक विशेष इनाम दिया l मेरी पूरी साहित्यिक सेवा पर मुझे लोटस एवार्ड भी मिला l यह एवार्ड एफ्रो-एशियनराइटर्स कमेटी की एक अन्तर्राष्ट्रीय ज्यूरी देती है l मैंने अब तक यह एहतियातन(ध्यान) से की थी कि जो नज़्म किसी एक क़िताब में आ जाये वह दुसरे संग्रह में संग्रहित न हो l इस से नुक़सान यह हुआ कि कई महत्वपूर्ण नज्में लोगों तक नहीं पहुँचीं l इस लिए “सरमाया” में “झंकार” “आख़िर-ए-शब” और “आवारा सिज्दे” की ज़्यादातर नज्में जमा कर दी गयी हैं l अब भी मेरी बहुत सी नज्में और गज़लें इधर-उधर बिखरी हुई मिल जाएँगी l उनको ढूँढ करके इस संग्रह में शामिल कर देता तो इसके पृष्ठ बढ़ जाते लेकिन शायद मान-मर्यादा में कोई वृद्धि न होती l

इस संग्रह के प्रकाशन पर मुझे जिन दोस्तों का शुक्रिया अदा करना है उनमे

1. हिमालयाई मनुष्य मक़बूल फ़िदा हुसैन की है जिन्होंने संग्रह का मुखपृष्ठ बनाया और मेरा चेहरा भी, जिसको देख कर पहली बार मुझे जिस्म अच्छा लगा l
2. डा० सादिक़ ने इस संग्रह के कम्पाइलेशन में बहुत हिस्सा लिया l मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ l डा० सादिक़ से जब-जब मिला हूँ मैंने मन ही मन यह मिसरा’ दोहराया है – आँ चे खूबाँ हमा दारन्द तू तनहा दारी l उनकी मशहूर क़िताब ‘तरक्क़ीपसन्द अफ़साना’ पढ़कर तरक्क़ीपसन्दी पर मेरा विश्वास और बढ़ गया l
3. इस क़िताब के कम्पाइलेशन में सलीमा हाशमी का भी हिस्सा है, उनका शुक्रिया तो अदा नहीं करता हूँ, हाँ, ढेरों प्यार भेजता हूँ l
4. जैसी यह क़िताब है ऐसी क़िताब के लिए दोस्त बहुत से मांग कर रहे थे l लेकिन तीन-चार संग्रहों की नज्मों और ग़ज़लों की नक़ल करने के लिए किसी फ़रहाद की ज़रूरत थी जो सुतून काट के जुए शीर ला सके l यह फ़रहाद मुझे अपने ही गाँव के पड़ोस या’नी सरायमेरे में मिल गया l यह है नौजवान शाइर रशीद अंसारी सल्लामाहू जिनकी दाढ़ी देख कर मैं हमेशा इस उलझन में पड़जाता हूँ कि वह असली है या विग है l बहुतसी दुआओं के साथ उनका शुक्रिया अदा करता हूँ l

5. मैंने और मेरी बीवी ने अपनी मिलीजुली कोशिश से सिर्फ दो ही बच्चे पैदा किये l बच्चे पैदा कर लिए लेकिन नाम रखने की दक्षता मुझमे थी न मेरी बीवी में l बेटी लगभग ग्यारह बरस की हो गयी तब तक हम मियां-बीवी उसको सिर्फ मुन्नी कहते रहे l एक दिन सरदार जा’फ़री ने हम दोनों को डांटा कि यह मुन्नी-मुन्नी क्या करते रहते हो l कोई ढंग का नाम रखो l शौक़त ने जा’फ़री साहब से कहा आप ही कोई नाम बताइए l जा’फ़री साहब ने बहुत से नाम बताये l उन्केसे हम सब ने “शबाना” पसन्द किया और इसी तरह मुन्नी शबाना बन गयी l उसके बाद हम मियां बीवी बेटे के नाम के लिए परेशान हुए l उसकी ‘आया’ उसे बाबा कहती थी, हम भी यही कहते थे l एक दिन मेरे एक नौजवान दोस्त मसूद सिद्दीक़ी जो अरबी के प्रोफ़ेसर थे और इस वक़्त सऊदिया में अरबी पढ़ा रहें हैं, उन्होंने बाबा को अह्मर आज़मी बना दिया l हमने इसके बाद कोई बच्चा पैदा नहीं किया कि फिर नाम रखना पड़ेगा l इतनी ही परेशानी इस क़िताब के नाम की थी l चूँकि मुझे अपने ज्ञान का पता था इसलिए मैंने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के दोस्तों साहित्यकारों से फ़रमाइश कर रखी थी कि मेरी नई क़िताब के लिए कोई नाम बता दीजिये l मेरी यह मुश्किल मेरे नौजवान दोस्त और साथी हसन क़माल ने आसान कर दी और कहा कि इस संग्रह का नाम “सरमाया” होना चाहिए l मैं हसन क़माल का शुक्रगुज़ार हूँ l

6. आखिर में उसका शुक्रिया अदा करता हूँ जिसका शुक्रिया सब से पहले अदा करना चाहिए था l यह हौसलामन्द नौजवान हैं शाहिद माहुली जो खुद एक अच्छी सोच के शाइर भी हैं और अच्छे प्रकाशक भी और मेरे हमवतन भी l मैं उनका शुक्रिया सबसे बाद अदा कर रहा हूँ इसकी पूर्ति ऐसे हो सकती है कि आप इन पृष्ठों को यहाँ से पढ़ना शुरू कीजिये l

पस-ए-सुख़न

मैंने शाइरी क्यों शुरू की, शाइर कैसे बना (अगर आप मुझे शाइर समझते हैं) इसकी रिसर्च के लिए किसी रिसर्चर की ज़रूरत नहीं l मैंने जिस घर में जन्म लिया उसमें शाइरी रची बसी थी, लेकिन राजनीति में रूचि कैसे पैदा हुई इसको समझना और समझाना मेरे लिए भी मुश्किल है l मैं जिस गाँव में पैदा हुआ और जहाँ आरंभिक जीवन गुज़ारा वहां बाहर की हवा भी मुश्किल से आती थी l शहरों में क्या हो रहा है, कांग्रेस क्या कर रही है, मुस्लिम लीग क्या कर रही है, इसकी चर्च भी वहां नहीं होती थी l बुजुर्गों से मैंने सुना है कि जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नील की खेती शुरू करवाई तो हमारे गाँव में भी नील के बीज आये और कारिंदों के द्वारा मौखिक सन्देश भी आया कि गेंहू बोना छोड़ दो, नील की खेती करो तो कम्पनी तुम्हे मालामाल कर देगी l

मेरे दादा मर्हूम ने जब यह सुना तो गुप्त ढंग से समझाया कि देखो कम्पनी हमारे कारीगरों के अंगूठे काट कर हमारे उद्योग और व्यापार को ठिकाने लगा चुकी है l अब खेती-बीजों को भी नष्ट करना चाहती है l इसके लिए चुपके-चुपके इन बीजों को बोने से पहले भून डालो l भूने हुए बीज उग नहीं सकते और जब वह उगेंगे नहीं तो कम्पनी यह समझेगी कि इस गाँव की ज़मीन नील की खेती के लिए ठीक नहीं और हमको मुसीबत से छुटकारा मिल जायेगा l दादा मर्हूम स्वयं यही किया और उनकी सलाह पर कुछ लोगों ने ऐसा ही किया l जब नील के बीज उगे नहीं तो कम्पनी यह समझने पर मजबूर हो गयी कि इस गाँव की ज़मीन अच्छी नहीं है l लेकिन कुछ दिनों बाद यह बात मालूम हो गयी कि किसानों ने नील के बीज मेरे अता हुसैन के कहने पर भून डाले थे l दादा मर्हूम पर मुक़दमा चला, जायदाद ज़ब्त हुई l लेकिन उस के बाद कम्पनी ने हमारे गाँव के लोगों को नील बोने पर मजबूर नहीं किया l

दादा मर्हूम ने कम्पनी के ख़िलाफ़ नफ़रत का जो बीज नील के खेतों में बोया था, वह एक दिन मेरे सीने में फूटा और फला-फुला(विकसित हुआ)l मेरी उम्र कोई 9-10 बरस होगी जब मैंने सुना कि हमारी तहसील में एक गोरा कलेक्टर आ रहा था l मैंने अपनी उम्र के लड़कों को एकत्र किया l बहनों के काले दुपट्टे चुरा कर फाड़े और काले झण्डे बनाये और चोरी-चोरी तहसील पहुँच गए कि जब वो बन्दर आयेगा तो हम उसको काले झण्डे दिखायेंगे l कलेक्टर बहुत देर में आया था, थानेदार जो अब्बा के पास अक्सर आता था, उसने हमको देख लिया और मुझे पकड़ के अब्बा के पास लाया l अब्बा किसी ग़ैर के सामने हमको न कभी डांटते थे न मारते थे, लेकिन उन्होंने हमको समझाया बहुत कि अब ऐसा न करना l

उन्हीं दिनों की बात है, हम जंगल में गिल्ली-डंडा खेल रहे थे l मैंने देखा कि एक बबूल के पेड़ में कहीं एक चुटकी रूई उड़कर आई और काँटों में फंस गयी है l मैंने उँगलियों को काँटों से बचाते हुए वह रूई निकाल ली l अब मैं और मेरे साथी आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे थे और सोच रहे थे कि बबूल में रूई कहाँ से आ गयी l कुछ दूर पर आम के एक छायादार पेड़ के नीचे गाँव का एक बूढ़ा आदमी कम्बल बिछाए लेटा सो रहा था l मैं रूई लिए उसके पास पहुंचा और दिखा कर उस से पूछा कि चाचा बबूल के पेड़ में रूई कहाँ से आ गयी l वह उठ बैठा और उसने हमको समझाया कि बाबू जब से महात्मा गाँधी ने चरखा कातना शुरू किया है भगवन हर जगह रूई पैदा करने लगा है l मैं सर खुजाने और सोचने लगा कि इनको कैसे मालूम हुआ कि गांधीजी चरखा कातते हैं l उस वक़्त हिन्दुस्तान ऐसा ही था |

लेकिन मेरे घर पर राजनीति की छाया नहीं पड़ी l एक बात जिस पर मुझे गर्व है और वर्णनीय भी है कि मेरे घर पर कभी साम्प्रदायिकता का भूत नहीं मंडलाया l भाई साहबान जब छुट्टियों में आते तो उनके साथ कांग्रेस और मुस्लिम लीग की खबरें भी आतीं l कभी खाने पर या चाय पर गांधीजी और उनकी बकरी की बात छिड़ती या यह कहानी कि जवाहरलाल नेहरु के कपडे पेरिस से धुल कर आते हैं l मेरी इन बातों में रूचि तो बहुत थी लेकिन कोई रोशनी नहीं मिलती थी l जब लखनऊ आया वहां स्वराज का आन्दोलन बहुत ज़ोरों पर चल रहा था l मैं प्रभातफेरियों में शामिल हो गया l मुँह अँधेरे किसी प्रभातफेरी में मैं शामिल हो जाता और नज्में पढता l इस संग्रह में झंकार की जो नज्में हैं जैसे “उठो देखो वो आंधी आ रही है” यह एक प्रभातफेरी के लिए मैंने कही और उसीमे पढ़ी थी l शहरों में सत्याग्रह भी हो रहे थे , विदेशी कपड़े दुकानसे निकाल-निकाल कर जलाये जा रहे थे l अमीनाबाद में कपड़ों की एक बहुत बड़ी दूकान थी l इसमें विदेशी कपड़ों के थान निकाल कर सड़क पर जलाये जा रहे थे l मैं भी इस दिलचस्प काम में शरीक हो गया l थोड़ी देर में पुलिस आ गयी और हम सब पकडे गए, मैं भी l जब एक हवलदार ने मेरा कन्धा पकड़ कर मुझे अपनी लारी में बिठाया तो मैंने देखा कि मेरे मोहल्ले का एक लड़का कुछ दूर साइकिल रोके खड़ा यह तमाशा देख रहा है l मैंने उसे पुकार कर उससे कहा कि मेरे घर में बता देना कि मैं जेल जा रहा हूँ l उस वक़्त मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं गांधीजी और जवाहरलाल जी की पंक्ति में शामिल हो गया l नशा उस वक़्त उतरा जब आलमबाग़ पहुँच कर लारी रुकी और पुलिस ने मुझे और मेरे उम्र के कुछ और लड़कों को उतार कर हलकी-सी हमारी केनिंग की और छोड़ दिया बस अब घर भाग जाओ l

मेरा दिल टूट गया, मैं सीधे अमीनाबाद कांग्रेस के कार्यालय में पहुंचा और मैंने पुलिस की शिक़ायत की कि मुझे पुलिस जेल नहीं ले गयी l अब मैं घर जा कर क्या बताऊंगा l एक बुज़ुर्ग लीडर ने मुझे बहुत तसल्ली दी, अभी तुम कम उम्र के हो लेकिन जेल जाने का इतना शौक़ है तो काम करते रहो, किसी न किसी दिन जेल चले ही जाओगे l मैं आंसू भरे हुए घर लौट आया, सोचने लगा कि ऐसा काम करना चाहिए कि ज़रूर जेल जाऊं l

हमारे ग्रुप में एक बंगाली नौजवान भी था l उसने हमको बम बनाने का तरीक़ा बताया l हमने बम बनाया और तय किया कि वजीरगंज थाने पर हम बम फेकेंगे जिसके इन्स्पेक्टर ने हमको छोड़ दिया l अच्छा यह हुआ कि जब बम तैयार हो गया तो मुझे फ़िक्र हुई कि थाने पर फेंकने से पहले यह मालूम कर लेना चाहिए कि बम बना भी है या नहीं l हमलोग गोमती के किनारे शम्शान घाट की तरफ गए और वहां सन्नाटे में हमने बम का परीक्षण किया तो मालूम हुआ कि वह अनार(पटाखेवाला) बन गया l मैंने अपने बंगाली दोस्त को खूब गालियाँ दी, मारपीट भी हुई और उसको अपने ग्रुप से निकाल दिया l

बहुत दिनों तक इसी तरह भटकता रहा l
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़ रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं l

उस वक़्त एक ऐसा रोमांटिक हादिस: हुआ कि लखनऊ छोड़ कर कानपुर चला गया l वहां मजदूर सभा के कार्यकर्ताओं का साथ हुआ l वह चोरी चोरी मुझे कम्युनिस्ट पार्टी का लिटरेचर देने लगे l अब मुझे वह रास्ता मिल गया जिस के लिए मैंने इतना लम्बा सफ़र तय किया है और फ़ालिज लग जाने के बाद अब तक इसी रास्ते पर चल रहा हूँ l एक दिन इसी रास्ते पर गिरूंगा और सफ़र ख़त्म हो जायेगा, मंजिल पर या मंजिल के क़रीब l

-कैफ़ी आज़मी
6 नवम्बर 1989