पेशलफ़्ज़ – सज्जाद ज़हीर

From Kaifiyat - बम्बई, मार्च 1944 ई. 

सज्जाद ज़हीर - kaifi azmi

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जदीद1 उर्दू शायरी के बाग़ में एक नया फूल खिला है, एक सुर्ख़2 फूल l कैफ़ी आज़मी से मेरी वाक़िफ़ियत3 एक साल से भी कम की है, उनसे मुलाक़ात को अभी छह महीने भी नहीं हुए हैं l उन्होंने अपनी दो-तीन नज़्में ‘क़ौमी जंग’ को भेजी लेकिन अपना पता न लिखा l नज़्में अच्छी थीं इसलिए शाया4 कर दी गईं l पहले तो मैं समझा कि यह शख्स़ शायद किसी सरकारी दफ्तर में मुलाज़िम5 है l उसका लापता होना बमजबूरी है और यही शायद उसकी शर्मिन्दगीऔर मुँह छुपाने की वजह भी l बहरहाल हमारी खोज जारी रही l बड़ी मुश्किल से अली सरदार जाफ़री की रहनुमाई6 में लखनऊ के कुछ रफीकों7 ने कैफ़ी को ढूंढ निकाला l मिलने पर मालूम हुआ कि वह एक तालिब-ए-इल्म8 क़िस्म9 के नौजवान हैं जिनकी तालीम10 का बाक़ायदा सिलसिला अरबी मदरसों में अरबी-फ़ारसी के इम्तिहानों की सनदें हासिल कर लेने के बाद थोड़ी ही मुद्दत पहले ख़त्म हो चुका है l अंग्रेज़ी ज़बान से नावाकिफ़11 हैं, उसे पढ़ने का शौक़ रखते हैं, बेरोज़गार हैं, अपना कोई घर नहीं है, इसी सबब से लापता थे l उसके बाद हमने उनसे कहा कि अपनी तमाम इन्क़िलाबी-नज्में12 हमारे पास भेज दें l यह कोई पन्द्रह-बीस होंगी l हम ‘क़ौमी जंग’ के इदारे13 वाले उन्हें पढ़कर हैरान रह गए l

जंग के इस दौर में जब से सोवियत यूनियन पर, हिटलरी हमला हुआ है और हिन्दुस्तान की सरहदों पर जापानी क़ज्ज़ाक़ आन बैठें हैं, हमारे बहुत से नौजवान अदीबों14 पर रूहानी15 और ज़ेहनी तअत्तुल-16 तारी है l जंग के सिलसिले में पैदा होनेवाले दिलख़राश17 हालात और मुल्क में सियासी जमूद18 का परतौ19 इनके दिमाग़ों पर भी पड़ा है l इनकी समझ में नहीं आता कि इन्क़िलाब की वह राह जिस पर दो-चार-पाँच साल पहले इतनी तेज़ी से गामज़न20 थे, यकायक कहाँ खो गई ! पुराने तरक़्क़ीपसन्द21 अदीबों में चन्द को छोड़ कर ज़्यादातर ऐसे हैं जो ख़ामोश हैं l और इस दौर के अक्सर नौजवान अदीबों में से इस गुमगश्तगी22 के आलम23 में बाज़24 ने जाम-ओ-सुबू25 में, बाज़ ने जिन्सी-बेएतिदाली26 में, बाज़ ने इबहामियत28 या ख़ालिसन29 मुह्मलगोई30 के दामन में पनाह ली है l अल्गरज़31 यह कि वह घूम-फिर कर इब्तिज़ाल-ओ-ज़लालत32 की उस पुरानी मंजिल पर पहुँच रहे हैं जिसके बरख़िलाफ़ तरक़्क़ीपसन्द मुसन्नफ़ीन की तहरीक33 बग़ावत का सुर्ख़ परचम बुलंद करके उर्दू अदब में एक नई ज़िन्दगी और एक अनोखी शान पैदा कर दी थी l अभी तो ‘पुराने’ रजअतपरस्त34 इन फ़हशनिगारों और मुहमलगोयों35 को तरक़्क़ीपसन्द नाम देकर सारी तरक़्क़ीपसन्द तहरीक को बदनाम कर रहें हैं l बहुत जल्द हम यह समां भी देखेंगे कि तरक़्क़ीपसन्दों पर एतिराज़ करनेवाले इन जदीद रजअतपरस्तों के क़लाम36 को उसी तरह मज़ा ले-ले कर पढेंगे जिस तरह कोकशास्त्र या चिरकिन या जान साहब का क़ला-ए-बलाग़त-निज़ाम37 हमारे इखलाक़-मआब-रूअसा38 के यहाँ अब भी शौक़ से पढ़ा जाता है l

कैफ़ी की शायरी क़दीम-ओ-जदीद39 दोनों क़िस्म की अदबी ग़लाज़तों40 से पाक41 है l इसमें सच्ची तरक़्क़ीपसन्दी की झलक नज़र आती है l उसका ख़याल, नस्बुल-ऐन42 साफ़ और मुतईयन43, उसका तर्ज़-ए-बयान सीधा और बराहरास्त, उसकी तश्बीहें और इस्तिआरे44 नए और दिक्ष हैं l वो इश्तिराक़ियत45 का पुरजोश हामी है, सोवियत रूस का गहरा दोस्त और हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट पार्टी का रुक्न भी है l उसका ख़याल और मक़सद-ए-हयात46, उसकी ज़िन्दगी और अमल47 में तज़ाद48 नहीं l अगर वह इन्क़िलाब और मज़दूरराज के गुण गाता है तो उसे इसका हक़ है l इसलिए कि उसने अपनी ज़िन्दगी को मेहनतकशों की ख़िदमत और उनकी जद्दोजेहद में शिरकत के लिए वक़्फ़ कर रखा है l जदीद तौर के तरक़्क़ीपसन्द शायर इसी क़िस्म के होंगे l वह ग़ालिबन पहले के मुक़ाबले में तादाद के लिहाज़ से कम होंगे, लेकिन उनकी गुफ्ता-ओ-क़िरदार49 में हमआहंगी की वजह से उनके क़लाम में ख़ुलूस और सच्चाई का उंसूर50 पहले से ज़्यादा होगा l वह नई सुबह का नक़शा कैफ़ी की तरह कुछ यूँ देखेंगे :

ये सादा-सादा गर्दूं51, ये तबस्सुम-आफ़रीं52 सूरज

पै-दर-पै कामयाबी से हो स्तालिन मगन जैसे

उबलती सुर्ख़ियों की ज़द पे हल्क़े हैं सियाही के

पड़ी हो आग में बिखरी ग़ुलामी का रसन जैसे

शफ़क़53 की चादरें रंगी फ़िज़ां में थरथराती हैं

उड़ाए लाल झंडा इश्तराकी अंजुमन जैसे

और फ़ैक्ट्रियों की ऊँची-ऊँची चिमनियों से निकलते हुए धुएँ को देखकर उन्हें ख्याल आएगा :

दामन-ए-तार पर जा-ब-जा नक्शगीर

खून-ए-मजदूर की आड़ी-तिरछी लकीर

ये धुँआ, आह कैफ़ी ये अन्धा धुँआ

एक मुद्दत से है जो यूँ ही पुरफ़िशां

सतह से नफ़ाखोरी की उभरे अगर

तोड़ ले चाँद-तारे अभी झूमकर

इर्तिक़ा-ए-जलवा-ए-नौ54 दिखाने लगे

बनके जन्नत ज़मीं जगमगाने लगे

ये फैक्ट्रियां और कारख़ाने अगर सरमायादारों55 की मिलकियत से निकल कर इश्तिराकी मिलकियत बन जाये तो ज़मीन जन्नत बनाई जा सकती है l सरमायादारी की तबाहकारियों का इस वक़्त कोई हिसाब नहीं l सुनिए :

मिल्कियत ने पर-ए-शहबाज़56 हुनर तोड़ लिए

नख्ल-ए-फ़ितरत57 हसीं के बर्ग-ओ-समर58 तोड़ लिए

हिर्स में दामन-ए-गेती59 के गुहर तोड़ लिए

और बहकी तो गुल-ओ-शम्स-क़मर60 तोड़ लिए

उफ़ुक़-ए-दहर पे ज़ुल्मत के सिवा कुछ भी नहीं

फ़ाशिज़्म इसी क़िस्म की सरमायादारी की एक सूरत है l इसकी कोशिश थी कि वह दुनिया के पहले इश्तिराकी निज़ाम-ए-हयात61, यानि सोवियत-यूनियन को तबाह कर दे, लेकिन उसे मुँह की खानी पड़ी l इश्तिराकी-निज़ाम ने पच्चीस साल में ऐसे इन्सान पैदा कर दिए जो शिकस्त खा ही नहीं सकते l नाज़ियों को एतिराफ़62 करना पड़ा कि :

ग़ैर-मुमकिन है कभी दाम में आना इनका

इनकी रातों के भी माथे पे है परतौ दिन का

इनकी सीनों में धड़कता है दिल स्तालिन का

इनमे सब ख़िज्र हैं, ये ठोकरें खाएं क्योंकर

और इनके रहनुमा स्तालिन जैसा शख्स़ है l एक मामूली मजदूर, जो आज सारी आज़ादी-पसन्द दुनिया का रहनुमा बन गया है l कैफ़ी ने उसकी बड़ी सच्ची और दिलकश तस्वीर खेंची है :

तेरे सर पर है इन्क़िलाब का ताज

दोश-ए-तामीर63 पर है हात तिरा

जंग और ऐसे ख़ूनियों से जंग

इक शिकन मगर जबीं पे नहीं

अपनी धुन, अपनी राह, अपना काम

जंग औहाम64 का यकीं पे नहीं !

कैफ़ी अपने हमवतनों को भी जिह्द-ओ-अमल का पुरजोश प्याम65 देता है l वह चाहता है कि इस इन्क़िलाबी दौर में उसकी क़ौम भी मुत्तहिद-ओ-मुनज्ज़म66 होकर आज़ादी की आलमगीर जंग67 में शामिल हो l वह इस वह इस तज़बज़ुब68 और फ़रसुदा तख़य्युल69 से कोसों दूर है जिसका मक़सदअपनी शरीक-ए-ज़िन्दगी को, तुम मिरे साथ कहाँ जाओगी! कह कर टाल देता है l जिन्स-ए-लतीफ़70 को इस से बढ़कर ज़िल्लत और क्या हो सकती है ? इसके बरख़िलाफ़ कैफ़ी का इसरार है कि …… उठ मिरी जान ! मिरे साथ ही चलना है तुझे !

ज़िन्दगी जिह्द71 में है सब्र के क़ाबू में नहीं

नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं

 उड़ने-खुलने में नक्हत ख़म-ए-गेसू72 में नहीं

यह है कैफ़ी का तख़य्युल और उनकी इन्क़िलाबी-ओ-इश्तिराकी नज्मों का रंग …….. इसके अलावा इस मज्मूए73 में और भी नज्में हैं जो बिलकुल ग़ैर-सियासी हैं l ग़रज़ कि यह उनकी शायरी के तमाम पहलुओं पर हावी है l कैफ़ी अभी नौजवान हैं, उनकी उम्र इस वक़्त 26 साल से कम है, और ‘झंकार’ की तमाम नज्में, ग़ालिबन गुज़श्ता74 तीन साल के अन्दर कही गयी है l किसी शायर की शायराना ज़िन्दगी का आग़ाज़75 मुश्किल से इस से बेहतर हो सकता है l सबसे ज़्यादा उम्मीद-अफ़ज़ा76 बात यह है कि उनके कलाम में मानवियत और फ़न77 दोनों के एतबार से तदरीजी78 तरक्क़ी है l यह सही है कि अभी उनके कलाम में वो गहराइयाँ पैदा नहीं हुई जो सिर्फ इल्मी-उबूर79, नीज़-मुशाहदे80 और कसीर81 तजुर्बों का नतीजा होती हैं l ज़ोर-ए-कलाम और फ़साहत-ए-बयान82, मुशाहदे, ख़याल, इल्म और इदराक83 की तिरी मायगी84 पूरी नहीं कर सकते l इन्सानी जज़्बात को मुतहर्रिक85 करना शायरी का काम है लेकिन अगर उसके मानी ये है कि शे’र दिलों को मसरूर86 और हयात-ए-इन्सानी87 ताबिन्दा-ओ-मुनव्वर88 करे, रूह को बालीदगी89 बख्शे, नफ्स को तमानियत90 और आईना-ए-अक्ल91 को सैक़ल92, तो फिर उसकी मंजिल बहुत दुश्वार है l यह बिलकुल सच है कि ‘बेहतरीन शायरी जुज़वेस्त अज़ पैग़म्बरी93 है l मैं उम्मीद करता हूँ कि कैफ़ी इस ‘आला-ओ-अर्फ़ा94 मन्सब95 को हासिल करने की कोशिश करेंगे l इस वक़्त उनकी बेहतरीन तारीफ़ यही है कि उनका रुख़ सही तरफ़ है और उनके क़दम बराबर आगे बढ़ रहे हैं l

-सज्जाद ज़हीर


  1. आधुनिक 2. लाल 3. परिचय 4. प्रकाशित 5. कर्मचारी 6. नेतृत्व 7. मित्रों 8. विद्यार्थी 9. भांति 10. शिक्षा 11. अपरिचित 12. क्रान्तिकारी कवितायेँ 13. संस्था 14. साहित्यकारों 15. आत्मिक 16. बेकार होना, गत्यवरोध 17. दिल की तकलीफ़ 18. झुकाव 19. अक्स, छाया 20. अग्रसर 21. प्रगतिशील 22. भटकाव 23. स्थिति 24. कई 25. मदिरापान 26. यौन-लिप्साओं 27. आशावाद 28. अस्पष्टता 29. ख़ासकर 30. बेमानी बकवास 31. सारांश यह है कि 32. नीचता और कमीनगी 33. प्रगतिशील लेखकों के आन्दोलन 34. प्रतिक्रियावादी 35. अश्लील लेखकों और अनर्गलवादियों 36. रचनाओं 37. रचना में आलंकारिक शैली (यहाँ व्यंग्य के रूप में) 38. सम्मानित रईसों 39. प्राचीन और आधुनिक 40. साहित्यिक गंदगियों 41. मुक्त 42. मंतव्य 43. स्पष्ट और निश्चित 44. बिम्ब और प्रतीक 45. समाजवाद 46. जीवन व विचार-उद्देश्य 47. व्यवहार 48. भिन्नता 49. कथनी-करनी 50. तत्व 51. आकाश 52. मुस्कान की चमक वाला 53. लालिमा 54. उन्नति का नया जल्वा 55. पूंजीपतियों 56. शहबाज़ पक्षी का पर 57. प्रकृति के वृक्ष 58. पत्ते और फूल 59. धरती का आँचल 60. फूल, चाँद-सूरज 61. समाजवादी व्यवस्था 62. समर्थन 63. निर्माण के कान्धे 64. वहम का बहुवचन 65. सन्देश 66. संगठित और व्यवस्थित 67. विश्वयुद्ध 68. द्वन्द्व 69. पुराना विचार 70. महिला 71. संघर्ष 72. बालों के पेंच 73. संकलन 74, विगत 75. आरम्भ 76. आशाप्रद 77. कला और अर्थ 78. दर्जा-ब-दर्जा 79. शैक्षिक क्षमता 80. आकलन 81. अत्यधिक 82. कोमल अभिव्यक्ति 83. ज्ञान और बुद्धि 84. कमी 85. गतिशील 86. आनन्दित 87. मनुष्य का जीवन 88. उज्जवल और प्रकाशमान 89. उन्नति 90. संतोष 91. बुद्धि का आईना 92. परिष्कृत 94. अच्छी शायरी पैगम्बरी का अंश होती है 94. सर्वश्रेष्ठ और उच्चतम 95. पद
पेशलफ़्ज़ – सज्जाद ज़हीर